पटना

जीत की हैट्रिक ही एक शानदार रिकॉर्ड है। वह क्रम आगे बढ़कर अप्रतिम उदाहरण बन जाता है। लगातार चार जीत पार्टियों की साख के साथ प्रत्याशियों के दम-खम की उद्घोषणा भी करती है।

इस बार बिहार में ऐसे ही चार संसदीय क्षेत्र हैं, जहां मंझे हुए चार रणबांकुरे चौथी बार मैदान मारने के लिए आतुर हैं। संयोग से वे चारों राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) के प्रत्याशी हैं और उनके मुकाबले महागठबंधन का चुनावी अभियान अभी कुछ ढीला-ढाला है।

लोकसभा चुनाव में छह बार जीत का रिकॉर्ड बनाने वाले पूर्व केंद्रीय मंत्री राधामोहन सिंह इस बार भी पूर्वी चंपारण के मैदान में हैं। वे पिछले तीन चुनावों में अनवरत विजयी रहे हैं। पश्चिम चंपारण में डॉ. संजय जायसवाल, औरंगाबाद में सुशील कुमार सिंह और नालंदा में कौशलेंद्र उन्हीं की तरह तीन चुनाव निर्बाध जीत चुके हैं और चौथी जीत के लिए रात-दिन एक किए हुए हैं।

सुशील और कौशलेंद्र से भिड़ने वाले महागठबंधन के प्रत्याशी क्रमश: राजद के अभय कुशवाहा और भाकपा (माले) के संदीप सौरभ के लिए लोकसभा चुनाव का यह पहला अनुभव है। पश्चिम चंपारण और पूर्वी चंपारण में तो महागठबंधन अभी तक प्रत्याशी भी तय नहीं कर पाया है।

पश्चिम चंपारण कांग्रेस के खाते में है, जबकि पूर्वी चंपारण विकासशील इंसान पार्टी को मिली तीन सीटों में से एक है। इ

पार्टी, प्रत्याशी और प्रधानमंत्री पद का दावेदार। समेकित रूप से इन तीनों या फिर इनमें से किसी एक-दो पर रीझ मतदाता अपना निर्णय देते हैं। जीत के लिए इनमें से किसी एक का प्रभावी होना आवश्यक है। उपरोक्त चार संसदीय क्षेत्रों के साथ भी कमोबेश यही स्थिति रही है। पिछले दो चुनाव (2014 और 2019) तो पूरी तरह से मोदी लहर से प्रभावित रहे हैं।

उससे पहले 2009 के चुनाव ने राजनीति के एक संक्रमण-काल से निकल कर दूसरे युग में प्रवेश करने की पृष्ठभूमि बनाई थी। तब बिहार में राजग को अपेक्षा से कहीं अधिक सफलता मिली थी। उस चुनाव में नीतीश कुमार भी एक फैक्टर थे, जिनके नेतृत्व में बिहार सरकार अपना उत्कृष्ट प्रदर्शन कर रही थी।

हालांकि, उसके बाद से समीकरण भी बदला है और कुछ हद तक गणित भी। सत्ता की हेरा-फेरी में कई उपलब्धियों पर दूसरों की दावेदारी भी बन आई है। ऐसे में चौथी बाजी के लिए आतुर रणबांकुरों की चुनौती का बढ़ जाना स्वाभाविक है।

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