आगरा
अक्सर हम पढ़ते और देखते हैं कि शहर की आबादी वाले इलाके में जंगली जानवरों को ट्रैंक्लाइज करने के लिए एक्सपर्ट्स को बुलाया जाता है। कहने सुनने में ये सरल प्रक्रिया लगती है लेकिन है बहुत जटिल। जरा सी चूक हुई तो जानवर की जान भी जा सकती है या फिर किसी इंसान को खतरा भी हो सकता है। दरअसल मनुष्य को जब बेहोश करना होता है, तो उसके शरीर की पूरी जांच की जाती है। वजन किलो के अलावा ग्राम तक में देखा जाता है। उसी हिसाब से दवा तैयार की जाती है। जबकि जंगल या शहर में घुसे जंगली जानवर को दूर से देखकर या भागते हुए देखकर ही उसके वजन, शरीर के गठन, सांसों की चाल को भांपना पड़ता है। उसी अनुसार हम बेहोश करने की दवा तैयार करते हैं। यह जानकारी उप्र के गिने-चुने ट्रैंक्लाइजर एक्सपर्ट डा. आरके सिंह ने दैनिक जागरण को फोन पर खास वार्ता के दौरान दी।
वर्तमान में मेरठ के पशुपालन में कार्यरत डा. सिंह को पिछले दिनों एटा में बाघिन को बेहोश करने के लिए बुलाया गया था। डा. सिंह ने बताया कि वाइल्ड लाइफ एसओएस के डा. इलियाराजा और लायन सफारी के डा. सर्वेश राय भी उनका साथ देने के लिए वहां मौजूद थे। बाघिन को तीन तरफ से घेरा गया था। सीधा वार करने की जिम्मेदारी डा. राय पर थी, टीन शेड से बाहर निकलने पर डा. इलियाराजा गन से ट्रैंक्लाइज करते और अगर बाघिन खेतों की तरफ भागती तो डा. सिंह उस पर गन से निशाना साधते। लेकिन डा. राय के 12 से 15 फीट दूर से किए वार से ही वो बेहोश हो गई। डा. सिंह बताते हैं कि यह इतना आसान नहीं होता है क्योंकि हमें अपनी सुरक्षा के साथ ही जानवर की सुरक्षा भी देखनी होती है। सचेत रहना होता है क्योंकि जानवर के बेहोश होते ही भीड़ को संभालना मुश्किल हो जाता है।
डा. सिंह 2010 से लेकर अब तक जंगली और चिड़ियाघरों के जानवरों समेत 500 से ज्यादा जानवरों को बेहोश कर चुके हैं। इनमें से जंगली जानवरों की संख्या 100 से ज्यादा है, जिसमें सबसे ज्यादा तेंदुआ और बाघ हैं। सबसे ज्यादा मुश्किल 2019 में मुरादाबाद में दो हाथियों को बेहोश करने में हुई थी। एक को जैसे ही ट्रैंक्लाइजर गन से बेहोश किया, दूसरा आक्रामक हो गया। 2014 में एक तेंदुए ने हमला कर दिया था, हाथ पर आज भी निशान हैं। 2020 में पीलीभीत में बाघिन को बेहोश करना भी मुश्किल था। पहली बार 2010 में एक हाथी को ट्रैंक्लाइज किया था। चंबल में भी एक तेंदुए को ट्रैंक्लाइज करने आए थे।