मुंबई
बॉम्बे हाईकोर्ट ने चौंकाने वाला फैसला सुनाते हुए एक मेडिकल छात्रा को बड़ी राहत दी है। दरअसल, हाईकोर्ट में छात्रा ने एक याचिका डालकर कॉलेज को ये निर्देश देने की मांग की थी कि उसकी डिग्री रद्द न की जाए।
हाईकोर्ट में सुनवाई के दौरान ये बात सामने आई कि छात्र ने 2012 में गलत जानकारी देकर ओबीसी-नॉन-क्रीमी लेयर प्रमाणपत्र के आधार पर मुंबई के एक शीर्ष कॉलेज में एमबीबीएस डिग्री कोर्स में प्रवेश प्राप्त किया, लेकिन यह देखते हुए कि देश को डॉक्टरों की आवश्यकता है, उसे राहत दी गई।
- लाइव लॉ के अनुसार, न्यायमूर्ति ए एस चंदुरकर और न्यायमूर्ति जितेंद्र जैन की खंडपीठ ने साथ ही यह भी कहा कि ओबीसी के रूप में उसका प्रवेश सुनिश्चित करने के लिए उसके माता-पिता द्वारा किए गए ‘अनुचित तरीकों’ ने देश को एक और योग्य उम्मीदवार से वंचित कर दिया।
- हाईकोर्ट ने माना कि 2013 में मुंबई उपनगरीय कलेक्टर द्वारा ओबीसी श्रेणी के उम्मीदवार के रूप में छात्रा लुबना मुजावर को जारी किए गए गैर-क्रीमी लेयर प्रमाणपत्र को रद्द करना उचित था। लोकमान्य तिलक मेडिकल कॉलेज ने उसका एडमिशन तब रद्द कर दिया था। दरअसल, ऐसे प्रवेशों की जांच की मांग करने वाली एक रिट याचिका के बाद ओबीसी श्रेणी के तहत प्रवेशित सभी छात्रों के खिलाफ जांच शुरू की गई थी, जिसमें ये बात सामने आई थी।
जांच समिति ने पाया कि याचिकाकर्ता के पिता ने गलत जानकारी देकर प्रमाणपत्र प्राप्त किया था। समिति ने वैवाहिक स्थिति और आय के संबंध में उनके बयानों में विसंगतियां पाईं। 2008 में अपनी पत्नी को तलाक देने का दावा करने के बावजूद, उन्होंने कहा कि वे अपने बच्चों की खातिर एक साथ रहते हैं, जिसे समिति ने विरोधाभासी माना।
याचिकाकर्ता के पिता ने अपनी पत्नी की रोजगार स्थिति को गलत दिखाया और दावा किया कि उसकी कोई आय नहीं है, जबकि वास्तव में वो निगम में कार्यरत थी।
जांच रिपोर्ट के आधार पर, कॉलेज अधिकारियों ने 8 अक्टूबर 2013 को प्रमाणपत्र रद्द कर दिया जिसके बाद 1 फरवरी, 2014 को याचिकाकर्ता का प्रवेश रद्द कर दिया गया।
याचिकाकर्ता ने प्रवेश रद्द करने को चुनौती देते हुए 5 फरवरी 2014 को उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया। अदालत ने अंतरिम राहत देते हुए याचिकाकर्ता को अपना एमबीबीएस पाठ्यक्रम जारी रखने की अनुमति दी। हालांकि, अदालत ने उन्हें ओबीसी श्रेणी का लाभ प्राप्त करने से प्रतिबंधित कर दिया।
हाईकोर्ट ने कहा कि समय बीतने के कारण और अंतरिम आदेशों के आधार पर छात्रा ने अपना पाठ्यक्रम जारी रखा और 2017 में पूरा कर लिया, अब उसे डिग्री प्रदान की जानी चाहिए। कोर्ट ने कहा कि इस स्तर पर याचिकाकर्ता द्वारा प्राप्त योग्यता को वापस लेना उचित नहीं होगा।
कोर्ट ने अब छात्र को तीन महीने के भीतर पाठ्यक्रम के लिए एक सामान्य श्रेणी के छात्र के रूप में फीस का भुगतान करने का निर्देश दिया और कॉलेज को 50,000 रुपये का अतिरिक्त भुगतान भी करने को कहा।