HomeMera Lekhजीवन के नये रूपरंग का वर्तमान संदर्भों में विवेचन

जीवन के नये रूपरंग का वर्तमान संदर्भों में विवेचन

अमरावती के वरिष्ठ हिंदी कवि भगवान वैद्य की कविताओं में समय और समाज की विषम परिस्थितियों के साथ मनुष्य की जिजीविषा के स्वर उनकी कविता में अभिव्यक्ति के नये धरातल को निरंतर गढ़ते प्रतीत होते हैं और इनमें कवि वर्तमान जीवन की चतुर्दिक विडंबनाओं का सहजता से सामना करता दिखायी देता है . कविता की रचना प्रक्रिया में यथार्थ को जीवन के मूल तत्व के रूप में इसकी रचना का प्रमुख उपादान माना जाता है और इसके अन्य रचनात्मक तत्वों में कल्पना के मेल से कविता के फलक पर कवि की उजागर होती जीवन चेतना को निरंतर काव्य स्वर के रूप में देखा जाता है . अभिव्यक्ति के इसी धरातल पर कविता अपनी सार्थकता को प्रमाणित भी करती है और किसी संवाद की तरह से विमर्श भी करती दिखायी देती है . भगवान वैद्य के काव्य लेखन की विशिष्टता को इस प्रकार देखना – समझना समीचीन होगा और उनके इस प्रस्तुत कविता संग्रह ‘ रस्सी पर चलती लड़की ‘ में संकलित कविताएँ अपनी विषयवस्तु की सहजता के अलावा भाव भंगिमा की जीवंतता में भी उल्लेखनीय कही जा सकती हैं . इनमें जीवन चिंतन के विभिन्न रंग समाये हैं और कवि ने समाज में मनुष्य के जीवन के जटिल होते जाते संदर्भों पर खासकर दृष्टिपात किया है . इस संग्रह की कविताओं में वैयक्तिक जीवनानुभूतियों के अलावा सामाजिक जीवन के विस्तृत अनुभवों का भी समावेश है और घर – आँगन , गाँव शहर , बाजार दुकान , माँ – बाप , दोस्त – रिश्तेदार और इन सबके साथ रिश्तों की अटूट डोर में रोजमर्रा की जिंदगी और इसकी आवाजाही से उभरे मनोगत हलचल के शब्दों को खासकर आकार ग्रहण करता देखा जा सकता है . यहाँ कविता अपने भाषिक घेरे में अर्थ और अभिप्राय के दायरे में सामयिक महत्व के सामाजिक प्रश्नों से भी मुखातिब होती दिखायी देती है और देश तथा समाज के वृहत्तर जनजीवन के परिप्रेक्ष्य में समाज की वास्तविक चिंताओं से अवगत कराती है – ‘ ‘ अजीब दौर है . न कोई ठिकाना . न कोई ठौर है . चलते चलो , रास्ता बिछा है . पर कोई गाँव नहीं . चलते चलो . गाँव बसा है . पर , कोई रास्ता नहीं . देखते चलो . आलीशान मकान हैं . पर , कहीं कोई जान नहीं . देखते चलो . कई जाने हैं पर . कहीं कोई मकान नहीं . चलते चलो . बहुत भीड़ है पर . कोई किसी को जानता नहीं . बचके चलो . सब जानते हैं , पर . कोई किसी को मानता नहीं । ( अजीब दौर है )

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प्रस्तुत काव्य संग्रह की तमाम कविताओं में बदलते सामाजिक परिवेश के साथ समाज और संस्कृति के बीच उभरते संकट को निकट से देखने की चेष्टा समाहित है और मानवीय संस्पर्श से निरंतर दूर होते आत्मीय संबंधों में पसरते अलगाव और उदासी की धुँध में मन की चमक यहाँ फीकी होती प्रतीत होती है . जीवन के यथार्थ को इसी प्रसंग में इन कविताओं के राग – विराग में प्रवाहित देखा जा सकता है . यहाँ कविता जीवन को फिर से रचने के उत्स में शरीक होती सामने आती है और जो कुछ भी जीवन की यात्रा में पीछे छूटता जा रहा है उसको समेटने के साथ जीवन में समाने वाली हर नयी चीज का गहरा मंथन करती कविता को जीवन के गहरे पाठ का रूप प्रदान करती है – ‘ ‘ एक शब्दचित्र उभर रहा था . स्क्रिन पर , हौले – हौले . पर एक गलत ‘ क्लिक ‘ से . सब ‘ डिलिट ‘ हो गया . तुमने कहा , ‘ सेव ‘ करने की आदत डालो . अगली बार मैंने वैसे ही किया पर . कोई ‘ वायरस ‘ आ गया . पूरा ‘ डाटा ‘ चौपट कर गया . तुमने कहा , सीडी या पेन ड्राइव पर ले लिया करो . फिर कोई . चुंबकीय दुर्घटना हो गयी . पेन – ड्राइव सीडी ब्लैंक हो गयी . तुमने कहा , प्रिंट आउट निकाल कर रख लिया करो ! काश , स्पर्श , गंध , अहसास का भी . प्रिंट आउट निकल पाता . तो संबंधों के नाम पर . तुम्हारे – मेरे बीच केवल कोरा स्क्रिन न होता

सदियों से कविता मनुष्य के मन की सच्ची गुनगुनाहट के रूप में उसकी आत्मा के स्वर से जीवन के राग को स्पंदित करती रही है और इसमें उसका रास्ता यहाँ इस संग्रह की कविताओं में बेहद उदासी और चुप्पी से भरे किनारों के अलावा भीड़भाड़ कोलाहल और ऐसी हलचल से भरी जगहों से होकर भी गुजरता साकार होता है जिसके विचलन के साक्ष्य के तौर पर इन कविताओं को पढ़ना खास तौर पर प्रासंगिक है . हमारी सभ्यता के भौतिक तानेबाने में संस्कृति के संवाद के रूप में लिखी गयी इन कविताओं में हृदय के विस्मृत होती नैसर्गिक आहट की तलाश में भटकता कवि मन यहाँ घर परिवार में कायम होते संकटों से लेकर जनजीवन और सरकार जीवन के इन सुदूर विस्तृत ओर छोर का स्पर्श करता सबको अभिभूत करता है – ‘ ‘ वे यथाशीघ्र नाप लेना चाहते हैं . अपने बूढ़े कदमों से . सड़क की अधिकाधिक दूरी . आँखों में भर लेना चाहते हैं . अट्टालिकाओं से झाँकता खुला आकाश . सूरज तेज होने से पहले . भर लेना चाहते हैं . दुर्बल फेफड़ों में सुबह की ताजी हवा . तेज – रफ्तार वाहनों के दमघोंटू धुएँ से . बदरंग होने के पूर्व . वे महसूसना चाहते हैं . सड़क किनारे खड़े बीमार पेड़ों की बदरंग हरियाली . सुबह – सुबह सड़कों पर . ‘ मार्निंग – वाक ‘ के लिए निकलते . बुजुर्ग , बुढ़ऊ , बीमार , सीनियर – सीटिजन . . . उम्रदराज ! ‘ ‘ ( उम्रदराज ) वर्तमान दौर के अनपेक्षित जीवनानुभवों को इस संग्रह की कविताओं में बखूबी बयान किया गया है और कवि की इस रचनायात्रा में सारे लोग किसी कामना के साथ शरीक होते कहते है – ‘ ‘ सूखे खेत के लिए . भूखे पेट के लिए . संतान की बाट जोहती . आँखों के लिए . सीमा पर तैनात प्रहरी के लिए . कलम की आजादी के लिए . ध्वनित हो रही हैं . नूतन वर्ष पर शुभकामनाएँ ! ‘ ‘

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भगवान वैद्य प्रखर के इस काव्य संग्रह की कविताओं में यांत्रिक सभ्यता की संस्कृति से उपजे संत्रास और इसके फैलाव में संकट से घिरते जीवन संसार के यथार्थ को कवि ने आज की प्रचलित भाषा और जीवन के नये बिंबों और प्रतीकों के माध्यम से प्रकट किया है इसलिए इन कविताओं को रचनात्मक हस्तक्षेप की तरह से देखा जाना चाहिए और कवि यहाँ विकट समय और परिस्थितियों की आहट को सुनता उसका समुचित सामना करता सबको संबल देता है . इसलिए ये कविताएँ जीवनधर्मी कविताओं की कोटि में अपनी पहचान को दर्ज करती हैं और किसी अनंतिम लड़ाई के लिए मनुष्य की आत्मा को सहज शब्दों से प्रेरित करती हैं – ‘ ‘ सारा ही मत भर लो झोली में . छोड़ दो भूमि पर दानें चार . वही बिखरेंगे नयी ऊर्जा . वही खोलेँगे नव सृजन द्वार . ‘ ‘ इस संग्रह की कविताएँ जीवन के द्वंद्व में संकट के उमड़ते बादलों के नीचे उदासी से घिरी धरती के गर्भ में समाये जीवन के सुंदर सपनों की तरह से किसी नींद में दस्तक देती प्रतीत होती हैं – ‘ ‘ नदी के तट पर बैठा वह चित्रकार . जिसकी तूलिका से बिखरे रंग . दुनिया की हर भाषा में बतियाते थे . पाषाणों से घिरा वह शिल्पकार जो पत्थरों के गर्भ से मूर्तियों को निकालकर . उनमें प्राण फूँकता था . ( प्यास ) इन कविताओं में शब्दों की आवाजाही में खामोशी किसी जटिल सवाल की तरह खामोशी को कायम करते कवि के मनोभाव मौन संकल्प की तरह से जीवन को नये आकार में इसी तरह गढ़ते दिखायी देते हैं

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