ये उस सिस्टम के लिए एक सबक है, जो प्रवासी मजदूरों की व्यवस्था बेहतर होने का दावा कर रहा है। एक बेबस मजदूर का दर्द क्या होता है, ये कोई झांसी के घनश्याम से पूछे। दिल्ली के नागलोई में मजदूरी करते हैं। लाॅकडाउन में जिंदगी थमी तो काम धंधा भी बंद हो गया। पचास दिन तक इंतजार के बाद उम्मीद टूटी तो घनश्याम पत्नी सुनीता और दो बच्चों के साथ पैदल ही चल दिए। धागे से जुड़ी चप्पलें रास्ते में जवाब दे गईं, तो नंगे पैर चले। दुपहरी में लोग घरों में कैद थे, तब ये परिवार नंगे पैर तपती सड़क पर दुश्वारियां झेल रहा था।
तीन साल की बच्ची के पैर सड़क पर जलते तो सुनीता कुछ देर के लिए गोद लेतीं, लेकिन कब तक, खुद भी थकी थीं। कुछ कदम बाद मजबूरी में बेटी को नीचे उतारना पड़ता। रास्ते में प्यास से हलक सूखे तो घनश्याम ने एक हाथ में पानी की कट्टी और गोद में एक साल की दूसरी बेटी को उठा लिया। पैदल आने पर सवाल हुआ, तो बेबस आंखों से निहारा। बोले, पैसे होते तो चप्पल खरीद लेते। रास्ते में कुछ सज्जन मिले तो पेट भर गया, पीने को पानी की कट्टी है। जो होगा प्रभु देखेंगे। शनिवार को पौ फटने के साथ हरियाणा, दिल्ली और पंजाब के हजारों प्रवासी मजदूरों का काफिला चल पड़ा। सैकड़ों किमी की पैदल दूरी तय कर कोटवन बाॅर्डर से मथुरा में दाखिल हुए, लेकिन यहां भी बेबसी ही हाथ लगी। यहां सुबह कुछ प्राइवेट बसें और ट्रक खड़े थे। मजबूरी एेसी कि तमाम मजदूरों की जेब में किराया भी नहीं, एेसे में आगे का सफर तो पैदल ही नसीब में लिखा था। हां, कुछ ट्रक चालक दिलदार थे, तो मुफ्त में बैठाया, लेकिन इनकी संख्या गिनी-चुनी थी। प्राइवेट बसें मनमर्जी से किराया लेकर फर्राटा भर रही थीं।