कुछ जिद्दी से जज़्बात हो गए है
रिश्ते बहुत फ़ीके से पड़ गए है
परिंदों के होंसले भी कमज़ोर हो रहे है
खवाबों के शहर खत्म हो रहे है
अब फ़र्क़ नहीं पड़ता किसीको
किसीके भी लफ़्ज़ों के ठहराव से
जो बीत रहे है पल वो भी खामोश हो रहे है
अब आँखों में चमक पहली वाली नहीं होती
ढह जाते है आसियाने उनके भी
जिनके सपनों की उड़ान मंजूर नहीं होती
और जो बीत गए है वो भी बेजुबान से रहे है
रो रहे थे एक दिन बैठकर अकेले में
एह खुदा क्या हम ही इतने बदनसीब रह गए है
कोई रुकता नहीं है गिरा हुआ देखकर
चलो तो टकराते बेहिसाब है
बदल रहे है जो समय की रफ़्तार से भी जल्दी
उनको भी ये बतलादो
एक दिन रुकना उन्हें भी वहाँ है
जहाँ गिराया था तुमने पथिक को
एक दिन झुकना तुम्हे भी वहाँ है
क्यों है गुरुर खुद के मिटटी के शरीर पर
आखिर अन्त में होना तुझे भी राख है
फिर भी ना जाने क्यों ओढ़ रखा नकाब है
मिलकर मुस्कुरालों ये जिन्दंगी आखिर 2 पल की ही तो मेहमान है।
मोनिका धनगर ( लेखिका )