कभी वक़्त के उस किनारे पर भी गौर किया करो ,
जिसने जीना सीखा दिया उसे कभी तो याद किया करो ,
तुम बटकर खण्डों में क्यूं रहते हों
हम साथ मज़बूत है फिर धर्मों के सहारे क्यूं लड़ते हो
जो खून मेरी नाड़ी में है वैसे ही खून से तुम भी चलते हो
फिर भी ना जाने क्यूं बातों में आकर
फिर मुझसे कहते हो
वो मेरी मस्जिद ये तेरा मंदिर है
इंसानियत को भुला कर ना जाने क्यूं
उलझते इस मंज़र में हो
आज को छोड़ तुम कल की परवाह करते हो
मिलना एक दिन मिट्टी में ही है
ये जानते हुए भी
ना जाने क्यूं
खुद पर गुरूर करते हों।।
लेखिका: मोनिका धनगर