कोरोना महामारी से जो हमारा आम जीवन प्रभावित हुआ, उससे परीक्षाओं को लेकर भी अफरा-तफरी मच गई। भारत एक युवा देश है और जनसंख्या का एक बहुत बड़ा हिस्सा प्रवेश परीक्षा, शैक्षणिक डिग्री और रोजगार के लिए होने वाले प्रतियोगिता परीक्षाओं में भाग ले रहे हैं, जो उनके भविष्य के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। कुछ परीक्षाएं रद्द हो गई, तो कुछ परीक्षाओं को कुछ समय तक टाल कर उसके लिए विकल्पों की तलाश किया जाने लगा है।

विकल्पों के बीच समाधान तलाशना एक राजनीतिक प्रक्रिया है। करोड़ों छात्रों और उनके परिवारों की चिंताओं ने तो इसे राजनीतिक रूप से और भी गर्म मुद्दा बना दिया है। परीक्षा को लेकर शायद ही कभी इतना बहस और राजनीतिक टकराहट हुई हो, जबकि नीट जैसे केंद्रीकृत परीक्षाओं से हताश होकर सुदूर ग्रामीण इलाकों में छात्र-छात्राओं की आत्महत्या का मुद्दा राष्ट्रीय मीडिया में छीट-फुट ढंग से पहले भी उभरता रहा है। कुछ राज्यो में इसको लेकर आंदोलन के स्वर भी उभरे, पर इस सरकार के शिक्षा के क्षेत्र में केंद्रीकरण की नीतियों पर कोई प्रभाव नही डाल पाया। एमएचआरडी शिक्षा के क्षेत्र में आ रही समस्याओं का समाधान तकनीकी-आधारित केंद्रीकरण के द्वारा करना चाहता है, भले ही उससे गुणवत्ता और लकतांत्रिक मूल्यों पर उसका उल्टा ही असर क्यूँ ना हो।

29 अप्रैल 2020 को परीक्षा और आकादमिक सत्र को लेकर बने कुहाड़ कमेटी के संस्तुति के आधार पर यूजीसी ने जो दिशानिर्देश जारी किया उसमें अंतिम वर्ष के छात्रों के लिए परीक्षा को अनिवार्य कर दिया गया। ये परीक्षा ऑनलाइन या ऑफलाइन द्वारा ओपन बुक एग्जाम, एमसीक्यू, आदि तरीके से लिया जा सकता है।

प्रथमदृष्टया ये लगता है कि विश्वविद्यालयो को कई सारे विकल्प दिए गए जिसमें से उन्हें एक चुनना है। पर अगर इसको हम लागू करने के परिपेक्ष्य में देखे तो पाएंगे कि अंतिम वर्ष की परीक्षा तो करवानी ही है क्योंकि यूजीसी के दिशानिर्देश का पालन करना विश्वविद्यालयो के लिए आवश्यक है। साथ ही कई महत्वपूर्ण नीतिगत घोषणाओं से ऑनलाइन शिक्षा और ऑनलाइन एग्जाम के प्रति एमएचआरडी द्वारा अपरिहार्य बनाने की मंशा स्प्ष्ट होती गई, भले ही जमीनी हकीकत प्रतिकूल ही क्यूँ ना हो। परीक्षा के तरीको को लेकर चयन तो हो सकता था, परन्तु महामारी के अप्रत्याशित आगमन और आक्रमक संक्रमण ने ऐसी परिस्थिति में विकल्पों को बहुत ही सीमित कर दिया।

परीक्षा कैसे हो इस पर विभिन्न राज्य सरकारों ने अपने हिसाब से फैसला लेना शुरू कर दिया पर ये भाजपा शासित केंद्र सरकार बनाम गैर-भाजपा राज्य सरकारों का स्वरूप लेता गया। महाराष्ट्र सरकार ने जब परीक्षाओं को रद्द करने की घोषणा की तो वहाँ के राज्यपाल ने यूजीसी के दिशानिर्देश का हवाला देते हुए आपत्ति जताई। इसके अलावा राजस्थान, पंजाब, ओडिशा, पश्चिम बंगाल, आदि, – कई अन्य राज्य सरकारों ने अंतिम वर्ष की परीक्षाओं को नहीं करवाने का निर्णय किया। साथ ही देश के अग्रणी संस्थाओं में शामिल पुराने आईआईटीओ ने भी अपने छात्रो की परीक्षा रद्द कर पुराने सेमेस्टरों और आंतरिक मूल्यांकन के आधार पर डिग्री देने का फैसला किया।

केरल ने अपने राज्य में करीब 13 लाख छात्रों का ऑफलाइन तरीक़े से विभिन्न स्कूलों में ऑफलाइन तरीके से बोर्ड की परीक्षा ली और ये दावा किया गया कि कोई भी छात्र कोरोना से संक्रमित नहीं हुआ। पर जब इसीप्रकार की परीक्षा कर्नाटक में हुई तो कुछ छात्रों के कोरोना से संक्रमित होने की खबर आई।

दूसरी तरफ दिल्ली सरकार के डीटीयू और कुछ नए आईआईटी ने अपने यहाँ ऑनलाइन परीक्षा की। डीटीयू में ये देखा गया कि पिछले साल की तुलना में इस साल आउटस्टैंडिंग ग्रेड पाने छात्रो की संख्या में चार गुणा इजाफा हुआ। इससे ऑनलाइन परीक्षा की विश्वसनियता और शुचिता पर ही सवाल उठने लगा।

डीयू जैसें केंद्रीय विश्वविद्यालयो ने ऑनलाइन माध्यम से अपने अंतिम वर्ष के छात्रों का परीक्षा लेने का फैसला किया। डीयू के ऑनलाइन ओपन बुक एग्जाम का छात्रो और शिक्षको ने विरोध किया। जब इसका मॉक टेस्ट हुआ तो छात्रों के निराशंजनक और आक्रोशपूर्ण अनुभव से सोशल मीडिया भर-सा गया। छात्रों के व्यक्तिगत डाटा लीक हो गये, अपने विषय का प्रश्न पत्र नहीं मिला तो कहीं लिखे गए उत्तर अपलोड नहीं हो पा रहे थे। डिजिटल डिवाइड और जेंडर डिवाइड ने जरूरतमंद छात्रों के स्थिति को और भी विषम और जटिल बना दिया है।छात्रों ने अपने शिकायतों को लेकर कोर्ट का भी दरवाजा खटखटाया।

इन विरोधों के बीच 6 जुलाई को यूजीसी परीक्षा को लेकर अपने संशोधित दिशानिर्देश को लेकर आया जिसमें कोई खास नीतिगत बदलाव नहीं आये। अंतिम वर्ष की परीक्षा अनिवार्य रही, पर समयसीमा को सितंबर तक बढ़ा दिया गया। उसके अगले ही दिन दिल्ली में राज्य की सरकार ने ये घोषणा कि उनके विश्वविद्यालयों में परीक्षाएं नही होंगी। लेकिन इस तरह की राजनीतिक टकराहट से छात्रों की डिग्री का मामला अधर में लटक जाएगा।

परीक्षा का मामला जटिल है। कई सारे मॉडल हैं और कई तरह की चुनौतियों अलग अलग क्षेत्रों में हैं। कई राज्य तो बाढ़ और तूफान की भी विभीषका झेल रहे है।

यही नहीं विश्वविद्यालय के अंदर भी कई तरह चुनौतियाँ हैं। जैसे कि डीयू में जो नियमित छात्र हैं वो सेमेस्टर सिस्टम में हैं और उनका आंतरिक मूल्यांकन हो चुका है। परन्तु जो पत्राचार के छात्र है वो अभी भी सालाना सत्र में हैं और उनका आंतरिक मूल्यांकन नहीं होता है। और ऐसे छात्रों की संख्या डीयू में लाखों में हैं। तो जो फार्मूला नियमित छात्र पर लागू हो सकता है वो इन पर नहीं लागू किया जा सकता है। इसके अलावा कुछ छात्र ऐसे भी हैं जिन्हें नौकरी के लिए या आगे की शिक्षा के लिए तत्काल डिग्री चाहिए।

इसप्रकार ये परीक्षा लेने का सवाल काफी उलझ गया है और कई सारे मॉडल आज हमारे सामने हैं। ऐसे में जरूरत है कि दिशानिर्देशों को वाध्य ना बनाकर विकेन्द्रित निर्णय करने का रास्ता अख्तियार किया जाए। जब लॉकडाउन, कन्टेनमेंट जोन, रेड जोन आदि तय करने का फैसला जिला प्रशासन पर छोड़ा गया है तो फिर परीक्षाओं का भी फैसला विश्वविद्यालय पर छोड़ना चाहिए। परीक्षा को लेकर इस समय माइक्रो मैनेजमेंट करने की जरूरत है। इसलिए विश्वविद्यालय में भी सिर्फ कुलपति ये फैसला ना करें बल्कि वैधानिक आकादमिक संस्थाओं में विस्तृत विचार-विमर्श के बाद फैसला हो।

Previous articleAmarnath Yatra 2020: बाबा अमरनाथ यात्रा इस साल नहीं होगी, बढ़ते कोरोना प्रकोप को देख लिया फैसला
Next articleSushant Singh Rajput Suicide: आदित्य चोपड़ा और संजय लीला भंसाली के बयान में निकले अलग-अलग तथ्य, जानें- पूरा माजरा

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here