पिशाचिनी ने एक दिन मुझसे कहा कि मैं उसके लिए एक अलग कमरा ले लूं। यह बात स्वाभाविक थी क्योंकि डोम की झोपड़ी में उसे वह स्वतंत्रता नहीं मिल सकती थी, जो उसकी क्रियाओं के लिए जरूरी थी। उसके कहने पर मैं चल पड़ा…
लेकिन यह बताने से पहले कि उसने मुझे ऐसा करने के लिए क्यों कहा, मैं आपको अपने बारे में थोड़ा बताना चाहता हूँ।
मेरा नाम रामकृष्ण उपाध्याय है। मेरे पिता, देवानंद उपाध्याय, एक प्रसिद्ध ज्योतिषी थे। मैं उनकी दूसरी पत्नी से उत्पन्न वह बिगड़ा हुआ बेटा था, जिसे बचपन से ही बहुत लाड़-प्यार मिला।
पिता ने कई बार मुझे ज्योतिष सिखाने की कोशिश की, लेकिन मैंने कभी ध्यान नहीं दिया। मैं अपनी मस्ती में ही खोया रहा। बाल्यावस्था में ही पिता की मृत्यु हो गई, और सारा घर-गृहस्थी का भार मेरी माँ पर आ गया। वह मुझे बेहद दुलार करती थी, इस कारण मुझे किसी काम की चिंता नहीं करनी पड़ती थी। नौकर-चाकर सारा काम कर देते और मैं ऐशो-आराम में जीता रहा।
समय बीतता गया और मैं जवानी तक पहुँच गया। धन की कमी नहीं थी और माँ की ओर से खुली छूट थी, इसलिए मेरे चारों ओर चमचों की भीड़ रहती। अय्याशी मेरी जिंदगी का हिस्सा बन चुकी थी।
लेकिन अचानक मेरी जिंदगी में वज्रपात हुआ।
मेरी माँ, जो मेरी देखभाल करती थीं, अचानक चल बसीं। अब जिम्मेदारियाँ मेरे कंधों पर आ गईं, लेकिन मैं तब भी लापरवाह बना रहा। मैंने अपने खास चमचे कादिर को सब कुछ सौंप दिया। वह ऊपर-ऊपर से वफादार दिखता रहा, और मैं भी उसी भ्रम में था।
धीरे-धीरे उसने मेरी सारी संपत्ति अपने नाम कर ली। उसने मुझे नशामुक्ति केंद्र में भर्ती करा दिया, जहाँ सख्त पहरा था। मैं लगभग छह महीने वहाँ रहा और किसी तरह भाग निकला। गाँव लौटने पर देखा—कादिर मेरी गद्दी पर बैठ चुका था और सब कुछ हथिया चुका था।
मेरे मैले-कुचैले कपड़े और बढ़ी हुई दाढ़ी देखकर भी उसने मुझे पहचान लिया और अपने आदमियों से पिटवाकर नदी में फिंकवा दिया। परंतु मेरी मृत्यु नहीं हुई। मैं बहते-बहते एक श्मशान घाट के किनारे जा पहुँचा, जहाँ एक डोम ने मेरी जान बचाई।
स्वस्थ होने पर मैंने अपने खानदानी धंधे—ज्योतिष—से कमाई करने की कोशिश की। लेकिन क्योंकि मुझे ज्ञान नहीं था, लोग मुझे जल्दी ही पोंगा पंडित समझने लगे। यह मेरे लिए बहुत अपमानजनक था। पिता जैसे बड़े ज्योतिषाचार्य का बेटा होकर भी मैं नाकाम निकला। शॉर्टकट की तलाश में ही मुझे एक पुस्तक मिली, जिसमें कर्ण पिशाचिनी साधना का उल्लेख था। यह विद्या भूतकाल जानने में सक्षम थी।
तभी मेरी मुलाकात एक अघोरी बाबा से हुई। उन्होंने मुझे तीन महीने तक कठोर साधनाओं में रखा और अंत में यह विद्या प्रदान की। मित्र डोम की मदद से मैंने यह साधना पूरी की और लगभग बीस दिन बाद मुझे कर्ण पिशाचिनी की सिद्धि मिल गई।
अब किसी भी व्यक्ति को देखकर मैं उसके भूतकाल को साफ-साफ जान लेता था। मैंने फिर से ज्योतिष शुरू किया और पिशाचिनी की शक्ति से खूब कमाई होने लगी।
कुछ समय बाद पिशाचिनी मुझे एक बंद पड़ी दुकान तक ले गई। मैंने पड़ोस वाले दुकानदार से पूछा, तो उसने बताया कि यह दुकान उसकी है, लेकिन किराएदार न मिलने से खाली पड़ी है। मैंने उसे तुरंत किराए पर ले लिया। दुकान छोटी थी, लेकिन उसके पीछे एक कमरा और स्नानघर था—मेरे लिए यह पर्याप्त था।
मैंने डोम से विदा ली। उसे पैसे देना चाहा, पर उसने मना कर दिया। मैंने जिद करके उसे नए कपड़े दिए, जिन्हें उसने बाद में दूसरों को बाँट दिया। श्मशान में रहने के कारण उसमें मोह-माया से विरक्ति आ चुकी थी।
मैंने दुकान सजा ली—एक टेबल-कुर्सी और बाहर बोर्ड लगवा दिया:
ज्योतिषाचार्य रामकृष्ण उपाध्याय
रोज पिशाचिनी आती, अपना भोग लेकर चली जाती, और मैं थककर बिस्तर पर पड़ जाता। धीरे-धीरे मेरी दुकान चल पड़ी। रोज 15–20 लोग आने लगे। फीस बढ़ाकर 151 रुपए कर दी और नाम का खूब प्रचार हुआ। लोग मानने लगे कि मैं सिद्ध ज्योतिषी हूँ।
असलियत केवल मुझे पता थी—कि मैं केवल भूतकाल देख सकता था, भविष्य नहीं।
इसी बीच, एक हफ्ते बाद, अचानक एक एंबेसडर कार आकर मेरी दुकान के सामने रुकी। उस समय यह कार प्रायः सरकारी अधिकारियों के पास ही होती थी। मेरा दिल धक-धक करने लगा—क्या मेरी असलियत किसी को पता चल गई है?
पिशाचिनी ने एक दिन मुझसे कहा कि मैं उसके लिए एक अलग कमरा ले लूं।
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