मेरठ से सुलगी क्रांति की चिंगारी कुछ ही दिनों मे पूरे उत्तर भारत में फैल गई थी, कानपुर और आगरा में अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह शुरू हो चुका था, ऐसे में चंबल घाटी के सूरमा कहां पीछे रहने वाले थे, ये वो दौर था जब आगरा और कानपुर के बीच में सिर्फ इटावा जिला हुआ करता था.
पड़ोसी जनपदों में अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह की खबर जब इटावा पहुंची तो सबसे पहले भरेह किले के राजा रूप सिंह अंग्रेजों से मुकाबले का ऐलान कर दिया. झांसी की रानी लक्ष्मीबाई को जब इसकी खबर मिली तो वह खुद भरेह किले में आईं और आसपास के राजाओं के साथ मंत्रणा कर आजादी के आंदोलन में सक्रिय भागीदारी के लिए उनका आह्रवान किया.
इटावा के पूर्वी छोर में चकरनगर तहसील से 11 किलोमीटर दूर चंबल और यमुना के बीहड़ में स्थित भरेह क्षेत्र 1857 में गोरिल्ला युद्ध का बड़ा केंद्र बन गया था, यहां के राजा रूप सिंह ने गोरिल्ला युद्ध से अंग्रेजों की नाक में दम कर दिया था. इसकी जानकारी जब रानी लक्ष्मीबाई को हुई तो वे खुद भरेह किले में आईं और यहां आसपास के राजाओं से मंत्रणा कर अंग्रेजों ये युद्ध की रणनीति बनाई और एकता का नारा दिया.
रानी लक्ष्मीबाई की अपील और राजा रूप सिंह का रणकौशल काम आया, इटावा का इतिहास पुस्तक के मुताबिक भरेह किले के साथ-साथ चकरनगर के राजा कुंवर निरंजन सिंह ने भी क्रांति में कूदकर अंग्रेजों का मुकाबला किया. सफलता मिलती देख सिकरौली के राव हरेंद्र सिंह भी साथ हो लिए.