आगरा
यमुना किनारा बसा आगरा। प्राचीन हिंदू कालीन सभ्यता का प्रतीक है तो मुगलकालीन शासन का भी। मथुरा से नजदीकी के चलते आराध्यों की स्थली रही तो यहां खड़ीं तमाम इमारतें मुगलिया सल्तनत की गवाही भी देती हैं। बादशाह अकबर ने यही से दीन ए इलाही की शुरुआत की। इसलिए ही आगरा को सुलहकुल की नगरी भी कहा जाता है। ताजमहल, किला, फतेहपुरसीकरी, सिकंदरा जैसी मुगलकालीन इमारतों के अलावा भी यहां कई धरोहरें हैं, जिनका अपना एक अलग इतिहास है। आज हम बात करते हैं एक मंदिर की, जिसके आगे मुगल शासकों को भी नतमस्तक होना पड़ा था।
मुगल आक्रांता औरंगजेब ने देश में कई मंदिरों को अपना निशाना बनाया, सिकंदर ने भी अपनी बहादुरी दिखाई, लेकिन आगरा के सिकंदरा, बाईंपुर रोड स्थित प्राचीन श्री गोरल भैरों मंदिर की महत्ता के आगे वह भी नतमस्तक हो गए थे। इसके बाद उन्होंने अपनी हार मानकर मंदिर निर्माण कराकर यहां धर्मशाला और बावड़ी का निर्माण कराया था।
मंदिर के महंत विनोद गिर गोस्वामी हैं, उनका परिवार सात पीढ़ी से मंदिर की सेवा कर रहा है। वह बताते हैं कि औरंगजेब की सेना आगरा की सीमा पर जंगल में स्थित इस मंदिर को तोड़ने जा पहुंचीं, लेकिन मंदिर के चमत्कार के आगे सैनिकों की एक न चली। मंदिर तोड़ने की शुरुआत करते ही सैनिकों पर कभी मधुमक्खी हमला कर देती थीं, तो कही बिच्छू और सांप निकल आते, जिस कारण उन्हें पीछे हटना पड़ता था। इसकी जानकारी मुगल शासक औरंगजेब को हुई, तो वह मंदिर पहुंचा और मंदिर में ललकार कर कहा कि यदि यह मंदिर दैवीय है, तो यहां विराजमान मूर्ति हिलकर दिखाए। लोगों को लगा कि औरंगजेब ने क्या शर्त रख दी, लेकिन उसी पल मूर्ति हिली और उसे देखकर औरंगजेब मंदिर के आगे नतमस्तक हो गया। उन्हें मंदिर निर्माण के साथ यहां धर्मशाला और बाबड़ी का भी निर्माण कराया, जो आज भी मौजूद है।
मंदिर को लेकर महान सिकंदर की भी एक कहानी प्रचलित है। वह मंदिर हटाकर अपने किले की दीवार खड़ी करना चाहता था, लेकिन भैरो बाबा एक भौरे के रूप में आकर जितनी बार दीवार बनी मिली, उसे गिरा देते थे। काफी प्रयासों के बाद भी जब दीवार नहीं बन पाई, तो सिकंदर भी मंदिर की महत्ता के आगे नतमस्तक हो गया था।