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जो लफ्ज़ों में बयां ना हो पाया दर्द ,उसे सवालों में बुनकर लायी हूं।

जो लफ्ज़ों में बयां ना हो पाया दर्द ,उसे सवालों में बुनकर लायी हूं
सवाल तो सभी से है मगर कुछ कहने अपने पापा से आयी हूं ।।
मुझे पता है जब जन्म हुआ मेरा , ख़ुशी तुम्हें सबसे बड़कर हुई थी ।
लोंगों ने बेटी को धुतकारा वो बातें तुम्हे भी चुभी थीं ।
जिस तरह अनसुनी कर बातों को संभाला है तुमने मुझे ,
वो होंसला पक्का सा मुझे भी दे दो ना ,
आज फिर से उंगली पकड़कर इन काँटों की राहों से मुझे भी बचा लो ना ।।
तुम मुझे अब गुड़िया मत बुलाना ,
लोगो ने सच में मुझसे खेलना शुरू कर दिया है ,,
मेरी आबरू से तो कुछ लोग ही खेले ,
मेरे जब्ज़बातों को भी अब नीलाम कर दिया है ।।
अब ये लोग अपने नहीं रहे,
गर निकलो अपने घर से सपनों की ओर
तो हर मोड़ पर बस पैर वापस लौटाने को जी करता है,
ना जाने केसा देश है मेरा ,अपने स्वार्थ के लिए जिसे देवी बोलता है
उसके लिए दानव भी खुद बन बैठता है ,,,
अब सवाल एक मां से भी है,
यूं झुकाकर नज़रों को चलना मुझे सिखाना मत ,,
लोग कमज़ोर मानने लगते है मुझे
तुम अब स्वभाव से मधुर बनाना मत ।
आज देख तो रही होंगी तुम ,
मुझे राख बनाकर रख दिया है उन दरिंदों ने ,
अब तुम्हारे पास बस झूटा रोना रोने आयेंगे ,,
उन्हें नहीं दिखेगा दर्द तुम्हारा
सब बाहर जाकर अपना फोटो दिखाएंगे ,
हमदर्द कोई नहीं बनेगा सच्चा ,
तुम बस अपना ख्याल रखना
आगे से अपनी बेटी को फौलाद बनाकर रखना ।।
मेरी बहनों को भी तुम थोड़ा सतर्क तो कर देना ,
वो सीखें उन आंखों को नोचना ,,
थोड़ा हौंसला भर देना
कह देना सबको बेटी फूल नहीं जिसे मसल दोगे ।।
बेटी शूल है हाथों के नज़दीक जाते ही तार – तार हो जाओगे||

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मोनिका धनगर ( लेखिका )

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