
हाल के दिनों में उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा राज्य की कानून व्यवस्था के सुचारू संचालन, अपराध नियंत्रण हेतु कठोर कार्रवाई की संख्या में वृद्धि तेजी से देखी जा रही है । विकास दुबे कानपुर वाले तथा हनुमान पांडे द्वारा किए गए कुकृत्यों के एवज में उनका पुलिस द्वारा एनकाउंटर तथा इनके अन्य साथियों को मुठभेड़ में मार गिराए जाने के बाद उत्तर प्रदेश पुलिस की एनकाउंटर नीति पर प्रश्न उठे हैं। हालांकि आज के समय में जब मानवाधिकारों के प्रति संजीदा प्रेस, संस्थाएं तथा बुद्धिजीवियों की जागृत चेतना मौजूद हो तब विधि के शासन के तहत दंड विधान की मांग का ज्यादा मुखर होना स्वभाविक ही है । लेकिन इस एनकाउंटर के बाद जो विशेष आरोप पुलिस या राज्य पर लग रहा है वह है ब्राह्मण उत्पीड़न या सायास ब्राह्मणों का दमन।
विकास दुबे एनकाउंटर में जिस प्रक्रिया के तहत पुलिस ने कार्यवाही की है उस पर पूरे देश में प्रश्न उठाए गए, इन प्रश्नों में जिस प्रकार विकास दुबे को लेकर जा रही गाड़ी पलट गई और उसके बाद भागने की कोशिश में पुलिस द्वारा उसे ढेर कर दिया गया । इस घटना के बाद पुलिस की कार्यवाही पर कुछ मौलिक प्रश्न उठे जो निम्न है-
नंबर 1- उसे खुद को सरेंडर किया था फिर वह भागा क्यों ।
नंबर 2- जिस गाड़ी में वह था वह पलटी ही नहीं,अगर भागा भी तो गोली पैरों में मारने चाहिए थी सीने में नहीं।
नंबर 3- उसके साथियों को भी इसी प्रकार मारा गया।
‘पुलिस की त्वरित न्याय की संकल्पना’ विधि की नियत प्रक्रिया और संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत प्रदत्त प्राण एवं दैहिक स्वतंत्रता के अधिकार के विरुद्ध है। नंबर 4- ऐसी कार्यवाही से न्याय प्रिय समाज से अराजक समाज की ओर संचालन हो सकता है, आदि आदि।उपरोक्त प्रश्नों के अलावा जो सबसे मुखर प्रश्न उठा वह यह है कि विकास दुबे तथा हनुमान पांडे ब्राह्मण था इसीलिए मारा गया । यदि मुख्यमंत्री की जाति का होता तो नहीं मारा जाता । इस प्रश्न ने अन्य गंभीर और महत्वपूर्ण मुद्दों यथा पुलिस सुधार, न्यायिक सुधार, चुनाव सुधार आदि को बहस का प्रश्न ही नहीं बनने दिया ।
यहां गौर करने वाली बात यह है कि क्या अपराधियों का बंटवारा जाति के आधार पर होना चाहिए ? क्या जाति ही व्यक्ति की पहचान का एकमात्र आधार रह गई है। क्या विकास दुबे हनुमान पांडे विजय मिश्रा आदि ने अपनी आपराधिक गतिविधियों में ब्राह्मणों को विशेष छूट दे रखी थी । तथ्यों की पड़ताल करें तो पता चलेगा कि बिकरू कांड में शहीद क्षेत्राधिकारी ब्राह्मण ही थे, साथ ही पूर्व राज्य मंत्री संतोष शुक्ला भी ब्राह्मण थे, जिनकी हत्या दिनदहाड़े थाने में विकास दुबे ने की थी । क्या जातिवाद के कॉकटेल में इन मृतकों को जगह नहीं मिलनी चाहिए ? यह सत्य है कि भारत की राजनीति में जाति एक सच्चाई है और व्यवहारिक तौर पर इसे अनदेखा नहीं किया जा सकता। प्रत्येक राजनीतिक दल ऐसे किसी अवसर को भुनाने से नहीं चूकता जिसमें जातिगत ध्रुवीकरण और राजनैतिक लाभ की गुंजाइश हो। लेकिन समाज के प्रभावशाली वर्ग के तौर पर ब्राह्मणों को यह जरूर चिंतन करना चाहिए कि उनके आदर्शों और मानकों का स्तर क्या हो ।
क्या कोई बुद्धिजीवी ब्राह्मण विकास दुबे, हनुमान पांडे को अपना आदर्श स्वीकार कर सकता है? क्या वह श्री प्रकाश शुक्ला को इस समाज मैं अपना आदर्श मानेगा? मेरे हिसाब से लगभग सत प्रतिशत नहीं। ब्राह्मण सनातन काल से सभ्यता व संस्कृति के ध्वजवाहक वनकर विद्या और ज्ञान का संरक्षण, संवर्धन और परिरक्षण करते आए हैं। पांडित्य, कला, विवेक, तर्क आज के हजारों उदाहरण ब्राह्मणों की कीर्ति पताका के साक्ष्य हैं। वेदों की रचना हो या उपनिषदों में धर्म दर्शन का साहित्य चिंतन,भाष्य टीका हो या का खगोल और चिकित्सा सिद्धांतों की विशद मीमांसा, तुलसी की विराट समन्वय चेतना से लेकर निराला की आधुनिक राम की व्याख्या आदि ब्राह्मणों की मेधा का परिचय पत्र है। इतने शानदार और गौरवशाली अतीत के बाद यदि ब्राह्मण समुदाय अपनी पहचान अपराधियों के साथ करता है तो यह बात बहुत चिंतनीय हो जाती है आधुनिक राष्ट्र, राज्य में सैद्धांतिक तौर पर जाति को प्रमुख पहचान के तौर पर स्वीकार नहीं किया जाता है। लेकिन राजनीतिक मजबूरियों और सामाजिक ढांचे का दबाव इसे व्यवहार में उतनी ही मजबूती से जिलाए हुए है। जाति और समुदाय की भावना प्रत्येक अर्थ में नकारात्मक नहीं है यह गौरव का विषय भी हो सकती है। जैसे मदन मोहन मालवीय और जवाहरलाल नेहरू अपने नाम के आगे पंडित लगाते थे लेकिन एक भारत में विश्वविद्यालयी शिक्षा का अग्रदूत था तो दूसरा आधुनिक भारत के निर्माण की नीम का सबसे मजबूत पत्थर। अपने समुदाय के सर्वश्रेष्ठ व्यक्तियों और उनके सर्वश्रेष्ठ कार्यों का प्रचार प्रसार समाज को प्रेरित व समृद्ध करता है । ब्राह्मणों को अपने समुदाय के अपराधियों के साथ संलग्नता का पुरजोर विरोध और खंडन करना चाहिए। साथ ही अपराधी की कोई जाति धर्म लिंग समुदाय या कौम नहीं होती इस पर दृढ़ता से खड़ा होना चाहिए। क्योंकि अपराधी समाज के अवांछित तत्व होते हैं जो शांति सौहार्द प्रेम को बहुत क्षति पहुंचाते हैं।
ब्राह्मण समुदाय को आगे आकर वाजिब एवं मूल प्रश्नों पर मुखरता के साथ उठाना
चाहिए। जो कानून के शासन संविधान की रक्षा और मानवाधिकारों को मजबूत बनाते हों। क्योंकि मूल प्रश्नों के हृदय में भावनात्मक उद्देलनों में दब जाने का खतरा पहले से अधिक बढ़ गया है ।
फर्जी विरोध इसीलिए नहीं होना चाहिए विकास दुबे या हनुमान पांडे व्राह्मण था वल्कि तब भी होना चाहिए जब वह पुष्पेंद्र यादव या जितेंद्र कुमार हो । चयनात्मक विरोध तार्किकता के विरुद्ध होता है।
हमें ऐसे समाज का निर्माण करना है जहां मानवता मानव धर्म प्रमुख हों। स्वतंत्रता, समानता, बंधु और न्याय के लोकतांत्रिक आदर्शों को मजबूत और जागरूक नागरिक समाज (सिविल सोसाइटी) की मौजूदगी में हेतु प्राप्त किया जा सकता है। जब भी समाज जाति धर्म लिंग या क्षेत्र के नाम पर बढ़ता है हमेशा सबसे ज्यादा नुकसान मानवता का होता है। इसलिए ब्राह्मणों को एक जागरूक समाज के निर्माण में मशाल लेकर आगे चलना होगा जिससे राज्य में उभर रहे सर्व सत्तावादी लक्षणों को प्रतिसंतुलित किया जा सके।