नई दिल्ली
वाराणसी जहां आखिरी चरण में 1 जून को मतदान है उसके लिए भाजपा ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नाम का ऐलान सबसे पहले कर दिया था। चुनाव की घोषणा से भी पहले। कांग्रेस में रायबरेली ऐसी ही एक सीट है जिसका प्रतिनिधि कम से कम पार्टी के अंदर प्रधानमंत्री जैसा ही रुतबा रखता है। यहां बहुत लंबे वक्त से सोनिया गांधी सांसद रही हैं।
अमेठी रायबरेली का रुतबा तो हासिल नहीं कर सका लेकिन पार्टी में इस सीट का भी बहुत महत्व रहा है। यहीं से इस कहानी की शुरूआत भी होती है कि आखिर नामांकन के अंतिम दिन तक इन दोनों सीटों पर कांग्रेस उम्मीदवार की घोषणा का इंतजार क्यों करना पड़ा। चुनाव कई अन्य बातों के साथ साथ मनोविज्ञान का भी खेल है और कांग्रेस चाहे कोई भी तर्क दे, विमर्श की इस लड़ाई में बहुत बड़ी चूक कर दी है। भाजपा ने शुरूआत में 400 पार का नारा देकर चर्चा की दिशा तय कर दी थी।
दो चरणों में मतदान में थोडी कमी दिखी तो कांग्रेस और विपक्ष की ओर से यह माहौल बनाने की कोशिश शुरू हुई कि विपक्षी दमदार वापसी कर रहा है। लेकिन रायबरेली और अमेठी पर फैसले और देरी ने कांग्रेस को उस मोड़ पर लाकर खड़ा कर दिया है जहां कोई यह नहीं कह सकता है कि कांग्रेस मे विश्वास का संचार हो रहा है। बल्कि सवाल तो यह पूछा जाने लगा है कि क्या डर है कि महिला आरक्षण को इसी बार से लागू करने की दलील दे रही कांग्रेस ने घर की ही लड़की, प्रियंका को नजरअंदाज कर दिया है।
राजनीति को दूर से देखने वाला एक सामान्य दर्शक भी कांग्रेस की स्टार प्रचारक प्रियंका गांधी वाड्रा के हावभाव देखकर कह सकता है कि वह चुनाव लड़ना चाहती हैं। लेकिन पार्टी ने उन्हें चुनाव प्रचार तक बांधकर रख दिया है। क्या कारण है कि लड़की हूं, लड़ सकती हूं का नारा देने वाली प्रियंका खुद घर में अपने अधिकार की लड़ाई नहीं लड़ पा रही हैं। फिर बाहर की महिलाओं को कैसे उत्साहित कर पाएंगी। राहुल गांधी बार बार कहते हैं- मैं डरने वाला नहीं हूं। माना जा रहा था कि इसी संदेश को कार्यकर्ताओं और अपने सहयोगी दलों के बीच पहुंचाने के लिए वह फिर से अमेठी से चुनाव लड़ेंगे। पिछली बार वह भाजपा के तेज तर्रार नेता स्मृति ईरानी के हाथों परास्त हुए थे।
अमेठी की घोषणा जाहिर तौर पर दूसरे चरण मे वायनाड चुनाव के बाद ही होनी थी जहां से वह लड़ रहे थे ताकि इसका प्रतिकूल असर वहां नहीं हो। अमेठी उन्होंने छोड़ दी। क्या संदेश गया यह बताने की जरूरत नहीं। लेकिन उससे ज्यादा रोचक यह है कि वह रायबरेली से उतरे और प्रियंका दौड़ से बाहर हो गईं। कांग्रेस की ओर से तर्क दिया जा रहा है कि दोनों के चुनाव लड़ने पर परिवारवाद का आरोप ज्यादा चस्पा होता, तो क्या अभी कम है। चर्चा है कि राहुल रायबरेली और वायनाड दोनो जीत गए तो वायनाड छोड़ देंगे और तबह संभवत: दक्षिण की राजनीति पर पकड़ बनाए रखने के लिए बहन प्रियंका को वहां भेजा जाएगा। क्या इससे परिवारवाद का आरोप कम हो जाएगा।
बात घूमकर वहीं आती है कि रायबरेली की सीट अघोषित रूप से उत्तराधिकार देती है। परिवार और पार्टी शायद यह नहीं चाहती है कि कार्यकर्ताओं में संदेह उत्पन्न हो। लेकिन यह भी तो गलत नहीं है कि खुद राहुल ने उत्तराधिकार छोड़ दिया था जब उन्होंने कार्यकाल पूरा होने से पहले ही कांग्रेस अध्यक्ष के पद से इस्तीफा दे दिया था। वैसे इसका भी कोई तार्किक जवाब नहीं है कि नामांकन के आखिरी दिन ही दोनों सीटों को लेकर फैसला क्यो।
बहुत सारी अटकलें लग रही हैं और कहा जा रहा है कि शायद राहुल भी तैयार नहीं हो रहे थे। सोनिया गांधी को हस्तक्षेप करना पड़ा। अगर ऐसी बात है तो फिर कांग्रेस को चिंता करनी पड़ेगी क्योंकि रायबरेली कांग्रेस की मजबूत सीट जरूर है लेकिन अजेय नहीं। अनिच्छुक होकर मैदान में उतरना घातक है खासकर तब जबकि अमेठी के बाद रायबरेली फतह को भाजपा एक मिशन के रूप में लेकर चल रही है।