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मीडिया जब बना व्यपार

देश में अनगिनत समस्याएं हैं। आम जनता सवाल पूछती है वो सरकार तक पहुँचते नहीं है, मीडिया अपना काम ईमानदारी से कर नहीं रही है, अधिकांश मीडिया संस्थाएं पत्रकारिता छोड़ व्यपार में रूचि लेने लगी हैं। व्यपार ख़बरों का, व्यपार जूठी तारीफ दिखाने का। जिस प्रकार एक क्रीम के विज्ञापन में एक सांवली लड़की उस विशेष क्रीम को लगाकर गोरी हो जाती है। किसी विज्ञापन में बल्ब से लड़की गोरी हो जाती है। ठीक इसी प्रकार आज मीडिया अपना कर्त्तव्य निभा रही है। कोई संस्था किसी नेता की तारीफ करती है तो कोई किसी और की। लेकिन शायद ही कोई ऐसा चैनल या संस्था हो जो सच दिखाता हो।

और हिंदुस्तान में राजनीती करने वाले नेताओं से तो आप भली भांति वाकिफ होंगे। किस प्रकार की इनकी कार्य शैली है। चुनाव के वक़्त या नेता जनता के पैरों में होते हैं और चुनाव के बाद आम आदमी इनके पैरों में। फिर तो इनसे मिल भी वही पाता है जिसकी किसी न किसी से जान पहचान हो, नहीं तो मिलना भी संभव नहीं है।

ऐसे में एक छोटी सी उम्मीद थी की आम जनता के हक़ की बात शायद कोई नेता संसद में उठाये लेकिन अब वो उम्मीद भी धुंदली होती नज़र आ रही है क्यूंकि जब संसद में प्रश्न काल ही नहीं होगा तो कोई जवाब क्यों देगा।

अब प्रश्न काल खत्म करने से क्या समझा जाये क्या लोकतंत्र को ख़त्म किया जा रहा है? क्या देश में अब कोई अन्य सरकार नहीं बनेगी ? क्या अब सरकार से कोई प्रश्न पूछने का हक़ नहीं रखता ? इसके क्या नतीजे हो सकते हैं। आप सोचिये।

मोहित कुमार (संपादक)

 

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